प्रधानाचार्य का सन्देश
प्रिय विद्यार्थियों, अभिभावकों, और सह-शिक्षकों,
नमस्ते। मुझे गर्व है कि मैं इस विद्यालय के प्रधानाचार्य हूँ, और मुझे यह जानकर खुशी है कि हम एक साथ काम कर रहे हैं। हम सभी का लक्ष्य एक ही है - छात्रों के उत्तम विकास और सफलता। यहाँ, हम सभी का संगठन सहयोग, समर्थन और प्रेरणा के लिए है।
मेरा संदेश है कि हम सभी को एक साथ काम करके, प्रेम और समर्थन के साथ, छात्रों को उनके उद्देश्यों और सपनों की दिशा में मदद करना है। हमें छात्रों के विकास में सक्रिय भागीदार बनना है।
विद्यालय के अभिभावकों से मेरी अपील है कि वे हमें उनके बच्चों की शिक्षा में सहयोग करें, उनके प्रगति को समर्थन करें, और हमारे साथ मिलकर उनकी सफलता में मदद करें।
अध्यापकों को मैं धन्यवाद देना चाहूँगा, जो हमारे छात्रों को ज्ञान और मूल्यों के साथ शिक्षित करते हैं। आपका योगदान हमारे विद्यालय के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अंत में, मैं यहाँ विद्यार्थियों को संदेश देना चाहूँगा कि आप सभी को अपने लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहना चाहिए। आपका संघर्ष और मेहनत ही आपको आपके सपनों की ऊंचाइयों तक पहुँचा सकता है। हमेशा सीखने के लिए उत्सुक रहें और सफलता के लिए प्रयासरत रहें।
धन्यवाद।
मनोहर लाल बिस्सू
स्वामी केशवानंद जी महाराज
महान शिक्षा-संत
स्वामी केशवानंद (1883-13.9.1972) एक महान शिक्षा-संत, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, हिन्दी के श्रेष्ठ सेवक, कला-मर्मज्ञ, त्यागी, तपस्वी, दृढ़ प्रतिज्ञ और निष्काम कर्मयोगी जनसेवक थे। स्वामी केशवानन्द का जन्म राजस्थान के सीकर जिले की लक्ष्मणगढ़ तहसील के अंतर्गत गाँव मगलूणा में पौष माह संवत 1940 ( दिसम्बर, सन् 1883) में निर्धन ढाका परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम ठाकरसी और माता का नाम सारा था।
अपने क्षेत्र के ग्रामीण समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और अर्थहीन रूढ़ियों की जड़ खोदने के लिए साधु केशवानन्द ने आवश्यक समझा कि उन्हें हिन्दी भाषा का ज्ञान देकर भारतीय संस्कृति के सही रूप से परिचित कराया जावे। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सन् 1911 में साधु आश्रम (गुरू-डेरे) में एक पुस्तकालय-वाचनालय का आरम्भ कर दिया, जहां हिन्दी की पुस्तकें और समाचार- पत्र मंगाए जाते थे। शहर के आदमी उनसे लाभ उठाते और हिन्दी का स्वतः प्रचार होता। वे स्वयं हिन्दी-पुस्तकों की गठरी बांधकर आस-पास के गांवों में ले जाते और लोगों को उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करते।
फाजिल्का की गुरुगद्दी त्याग कर स्वामी जी ने सन् 1917 में अबोहर-फाजिल्का क्षेत्र में समाज सुधार और हिन्दी-भाषा-प्रचार का कार्य आरम्भ किया था। उसी वर्ष अविद्या और रूढ़िवादी मान्यताओं से घिरे बीकानेर के गांवों की दशा सुधारने का संकल्प लेकर वहां शिक्षा प्रचार के लिए चौ. बहादुर सिंह भोबिया ने 9 अगस्त 1917 को जाट एंग्लो-संस्कृत मिडिल स्कूल संगरिया की नींव डाली। श्रीगंगानगर (तत्कालीन रामनगर) के निवासी चौ. हरिश्चन्द्र नैण वकील भी अविद्या के कारण इलाके के गांव-वासियों की दुर्दशा और पिछडे़पन से दुःखी थे, अतः वे भी शिक्षा-प्रचार के शुभ कार्य में चौ. बहादुर सिंह का पूरा साथ देने लगे। उनके प्रयत्नों से पन्नीवाली के ठाकुर गोपाल सिंह राठौड़ से संगरिया में 14 बीघा 3 बिस्वा भूमि दान में प्राप्त कर वहां 5 कच्चे कमरों और दो कच्ची बैरकों का निर्माण हुआ और विद्यालय एवं छात्रावास का संचालन होने लगा। विद्यालय का सब प्रकार का व्यय गांवों से दान-संग्रह करके पूरा किया जाता था। छात्रों की शिक्षा निःशुल्क थी। सन् 1923 तक जाट विद्यालय संगरिया के प्रबन्ध में गोलूवाला, घमूड़वाली और मटीली में भी शाखा प्राथमिक-शालाएं प्रारम्भ कर दी गईं।
सन् 1924 में उन्होंने इलाके में व्यापक रूप से हिन्दी का प्रचार करने के लिए सार्वजनिक सहयोग से ‘‘साहित्य सदन अबोहर’’ नाम की संस्था का श्रीगणेश किया। साहित्य-सदन के प्रबन्ध में इलाके के झूमियांवाली, मौजगढ़, जंडवाला, हनुमन्ता, भंगरखेड़ा, पंचकोसी, रामगढ़, रोहिड़ांवाली, चूहड़ियां वाला, कुलार, सीतो, बाजीदपुर, कल्लरखेड़ा, पन्नीवाला, माला आदि 25 गांवों में हिन्दी की प्राथमिक पाठशालाएं चलती थीं, जिनमें प्रौढ़-शिक्षा का भी प्रबन्ध था।
स्वामी केशवानन्द जी ऐसे अनोखे साधु थे जिन्होंने आत्म-कल्याण या मोक्ष-प्राप्ति के स्वार्थमय पथ पर चलने की अपेक्षा आजीवन ब्रह्मचारी रहते हुए पर-सेवा और लोक-कल्याण में लगे रहना श्रेयस्कर समझा। उसी को उन्होने पूजा-पाठ, तप-जप और ध्यान-समाधि बनाया।
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